मिटाना चाहता मुझ को ज़माना
समझ कर हमको एक मुफलिस दीवाना
यहाँ मरकज़ में अब रोटी नमक है
वहां सोने के बिस्कुट का खजाना
हुनर आता है तुमको ये अज़ल से
दबे कुचले गरीबों को साताना
करोडो खा के लाखो पर नज़र है
तिजोरी है कि सुरसा का मुहाना
न उलझो हम हैं उल्फत के सिपाही
हमारी बाहँ में अब है ज़माना
(Abhinav pryas ke oct - dec 2013 ke ank me prkashit meri gazal)
--सुधीर मौर्य
गंज जलालाबाद, उन्नाव, 209869